Tuesday, March 29, 2011

चटक चिरैया














चटक चिरैया मटक मटक के
रोज भोरहरे आती
नन्हे पंखो को फटक फटक के
मीठे गीत सुनाती 
भोर की निंदिया हौले हौले  
दूर कही उड़ जाती
अधखुली फूली आखों से 
चटक चिरैया ढूंढी जाती
वो सपनो से मुझे जगा कर
अब न कही दिख पाती
इतनी दूर जब जाना ही था 
तो चटक चिरैया  क्यों आती

Thursday, March 10, 2011

और हम लेखक भये

कवि जी कवि वर भये
सबदन के वर भये
रस छंद  जोड़ी लिए
लरिकन  के आफत  भये

अब हम भी पाठको को
सताने वाली श्रेणी में शामिल हुए
पाठक से परिवर्तन हुआ
और हम लेखक  भये