Tuesday, March 29, 2011

चटक चिरैया














चटक चिरैया मटक मटक के
रोज भोरहरे आती
नन्हे पंखो को फटक फटक के
मीठे गीत सुनाती 
भोर की निंदिया हौले हौले  
दूर कही उड़ जाती
अधखुली फूली आखों से 
चटक चिरैया ढूंढी जाती
वो सपनो से मुझे जगा कर
अब न कही दिख पाती
इतनी दूर जब जाना ही था 
तो चटक चिरैया  क्यों आती

5 comments:

  1. अपने ब्लॉग को "अपना ब्लॉग" पर सम्मिलित कराएं

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  2. it is a natural poem which emerge from u

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  3. for the best post i m very thanful to you...

    akashsingh307.blogspot.com

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  4. पहली बार आपके ब्लॉग पे आकर बहूत अच्छा लगा
    श्रेष्ठ कविता के लिए बधाई!!

    इस चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से हमारा नव संवत्सर शुरू होता है इस नव संवत्सर पर आप सभी को हार्दिक शुभ कामनाएं

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